20 January 2011

दिल है कि मानता नहीं


 रानी मुखर्जी अपने कॅरियर की फिसलन पर किसी तरह संभलने और ऊपर चढ़ने का दयनीय प्रयास कर रही हैं। ‘नो वन किल्ड जेसिका’ ने थोड़ा सहारा दिया है। प्रीति जिंटा के पास तो ‘जेसिका..’ भी नहीं है। माधुरी की वापसी वाली यश चोपड़ा की फिल्म ‘आजा नच ले’ नहीं चली, तो वह छोटे परदे पर कार्यक्रम कर रही हैं। सुना है कि करिश्मा कपूर ने जी तोड़ मेहनत करके स्वयं को चुस्त-दुरुस्त कर लिया है और वापसी के लिए बेकरार हैं। पुरुष सितारों का भी मन छोड़ना नहीं चाहता। पचहत्तर वर्षीय धर्मेद्र आज भी अपने शिखर दिनों की तरह आतुर हैं। 
विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा ऐसे अवसर की तलाश में हैं कि वे पुराने प्रतिद्वंद्वी अमिताभ बच्चन की तरह हो जाएं। इनमें से किसी को भी कोई आर्थिक दबाव नहीं है कि उन्हंे घर का चूल्हा दहकाए रखने के लिए काम करना जरूरी है। यह कोई दूसरे किस्म की जरूरत या भूख है कि आदमी सेवानिवृत्त होने की शांति को स्वीकार नहीं करना चाहता। 
दरअसल स्थिरता के महत्व को नकार कर जाने क्यों लोग गति में बने रहना चाहते हैं। प्रतिभा के मानदंड पर पूरी तरह चूक जाने के बाद ललक या लालच कायम है, जैसे सूर्यास्त के पश्चात भी वातावरण के कुछ क्षणों में रोशनी कायम रहती है। गौधूलि की बेला यही है कि गाएं चरकर लौट आई हैं और धूल में कुछ रोशनी शेष है। रानी मुखर्जी का आदित्य चोपड़ा से प्रेम प्रकरण चर्चित है। वे शादी करके बड़ी संस्था में महारानी कहला सकती हैं, परंतु उन्हें अभी भी किसी ‘मदर इंडिया’, ‘पाकीजा’ या ‘शारदा’ की तलाश है। प्रीति जिंटा के पास तो रानी मुखर्जी वाली प्रतिभा भी नहीं थी। 
‘वीर जारा’ के बाद भी मेकअप बॉक्स को छोड़ सकती थीं। करिश्मा कपूर ने लंबी सफल पारी खेली है और ‘खटिया सरकाने’ के साथ ही ‘राजा हिंदुस्तानी’ और ‘दिल तो पागल है’ भी की हैं। आज दो बच्चों को जन्म देने के बाद भी वह सुंदर और चुस्त-दुरुस्त लगती हैं तो इसका स्वागत है। परंतु छोटी बहन करीना के शिखर दिनों में अपने लिए वह कौनसा मुकाम बना सकती हैं? केवल दो बहनों की कोई अच्छी कहानी उनकी सहायता कर सकती है। हिंदुस्तानी सिनेमा में नायिका की उम्र दर्शक के जहन में हमेशा रहती है और मध्यम अवस्था में सत्रह का सौंदर्य और चुस्ती प्रस्तुत करने के बाद भी दर्शक उनकी वय नहीं भूल पाता। विगत की छवि वर्तमान के प्रयासों को विफल कर देती है। अब हर कोई तो सुचित्रा सेन नहीं, जो ‘आंधी’ जैसी सार्थक फिल्म में अपना जादू कायम रख सकती हैं। विदेशों में चालीस पार नायिका के लिए वैसी भूमिका लिखी जाती है और दर्शक उन्हें स्वीकार भी कर लेता है। 
हिंदुस्तानी सिनेमा में नायिका को जाने क्यों जवानी से जोड़ दिया गया है, जिस्म से जोड़ दिया गया है। समाज भी उसे ‘वस्तु’ की तरह ही मानता है। इस मामले की जड़ में हमारी नारी के प्रति भेदभाव वाली सोच है। मौजूदा दौर में कुछ परिवर्तन नजर आता है। विद्या बालन की ‘इश्किया’ और ‘नो वन किल्ड जेसिका’ के बाद प्रियंका चोपड़ा की ‘सात खून माफ’ भी आ रही है। क्या हमारे यहां सामाजिक परिवर्तन की गति भी लिंग भेद की शिकार है?

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